मुहर्रम (Muharram) : इस्लामी वर्ष यानी हिजरी वर्ष का पहला महीना है। हिजरी वर्ष का आरंभ इसी महीने से होता है।
इसके साथ ही आशूरे के दिन यानी 10 मुहर्रम की तारीख को एक ऐसी घटना हुई थी, जिसका विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इराक स्थित कर्बला में हुई यह घटना दरअसल सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल है। इस घटना में पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे (नाती) हजरत हुसैन को शहीद कर दिया गया था। कर्बला की घटना अपने आप में बड़ी विभत्स और निंदनीय है।
हक और न्याय की सिख देता है यह दिन
मुहर्रम, सत्य और न्याय के लिए बलिदान का प्रतीक है, विशेष रूप से इमाम हुसैन और उनके साथियों की कर्बला में शहादत के कारण. यह महीना इमाम हुसैन की कुर्बानी की याद दिलाता है, जिन्होंने सत्य और न्याय के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दिया. मुहर्रम हमें सिद्धांतों के लिए संघर्ष करने और अन्याय के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देता है, भले ही इसके लिए बलिदान देना पड़े.
वही दूसरी तरफ यजीद जो अन्याय और अत्याचार का प्रतीक था। यजीद से उसकी क्रूरता के लिए डर और नफ़रत की जाती थी, वहीं हुसैन को समाज प्यार करता था और उसका सम्मान करता था।
कर्बला का युद्ध
सत्य और न्याय के लिए लड़ी जा रही करबला, (इराक़ की राजधानी बग़दाद से 100 किलोमीटर दूर एक छोटा-सा कस्बा) की लड़ाई 10 अक्टूबर 680 (10 मुहर्रम 61 हिजरी) को समाप्त हुई। इसमें एक तरफ ईमाम हुसैन के साथ 72 (उलेमा मत के अनुसार 123 यानी 72 मर्द-औरतें और 51 बच्चे शामिल थे) जिसमें उनके छः महीने की उम्र के पुत्र हज़रत अली असग़र भी शामिल थे। और तभी से तमाम दुनिया के ना सिर्फ़ मुसलमान बल्कि दूसरी क़ौमों के लोग भी इस महीने में इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत का ग़म मनाकर उनकी याद करते हैं। इन पर कई दिनों तक पानी भी बंद कर दिया था जिसके चलते बच्चे से लेकर औरतों को भी भूखा प्यासा रखा गया। और दूसरी तरफ अत्याचारी यजीद की 40,000 की सेना थी। हजरत हुसैन की फौज के कमांडर अब्बास इब्ने अली थे। उधर यजीदी फौज की कमान उमर इब्ने सअद के हाथों में थी। इमाम हुसैन (हजरत अली और पैगंबर हजरत मुहम्मद (सल्ल.) की बेटी फ़ातिमा (रजि.) के पुत्र थे)
जन्म : 8 जनवरी 626 ईस्वी (मदीना, सऊदी अरब)4 हिजरी। शहादत: 10 अक्टूबर 680 ई. (करबला, इराक) 10 मुहर्रम 61 हिजरी। मुसलमानों का मानना है कि मोहर्रम के इस माह में अल्लाह की खूब इबादत करनी चाहिए। पैगंबरों ने इस माह में खूब रोजे़ रखे। जानकारी के लिए बता दें कि अल्लाह की बन्दगी तो आठों पहर और सोते जागते करनी चाहिए। अल्लाह की बन्दगी का कोई महीना विशेष या दिन विशेष नहीं होता।
मुस्लिम समाज में मनाया जाने वाला प्रसिद्ध शोक जश्न मुहर्रम सिर्फ लोकमान्यताओं पर आधारित है। हज़रत मोहम्मद जी ने कभी नहीं कहा कि आप अल्लाह के लिए खून बहाओ (जो लाख या अखाड़े के माध्यम से लहू लोहान होते हैं) या अपने आप को कष्ट दो। और न ही इसका प्रमाण मुस्लिम समाज के पवित्र धर्मग्रंथों (कुरान, इनजिल, जबूर आदि) में है।
ताज़िया का जुलूस
12वीं शताब्दी में ग़ुलाम वंश के पहले शासक कुतुब-उद-दीन ऐबक के समय से ही दिल्ली में इस मौक़े पर ताज़िये (मोहर्रम का जुलूस) निकाले जाते रहे हैं। इस दिन मुसलमान इमामबाड़ों में जाकर मातम मनाते हैं और ताज़िया निकालते हैं। भारत के कई शहरों में मोहर्रम में शिया मुसलमान मातम मनाते हैं ताज़िए निकालते हैं।
कहा जाता है कि ईमाम हुसैन प्यासे थे इसलिए मुहर्रम के दिन पानी गिर कर ही रहता है।
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