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आखिर भारत की कोई राष्ट्रीय भाषा क्यों नहीं है – कारण और पृष्ठभूमि

भारत एक बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश है, जहाँ सैकड़ों भाषाएँ और हजारों बोलियाँ बोली जाती हैं। अक्सर लोगों के मन में सवाल उठता है कि इतने बड़े देश की "राष्ट्रीय भाषा" आखिर क्यों नहीं है? संविधान में हिन्दी और अंग्रेज़ी को "राजभाषा" का दर्जा दिया गया है, लेकिन किसी भी भाषा को "राष्ट्रीय भाषा" नहीं बनाया गया। इसके पीछे गहरे ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक कारण हैं।


1. भाषाई विविधता

भारत में 22 भाषाएँ संविधान की अष्टम अनुसूची में मान्यता प्राप्त हैं और लगभग 121 प्रमुख भाषाएँ और 19,500 से अधिक बोलियाँ बोली जाती हैं। ऐसे में एक भाषा को "राष्ट्रीय भाषा" घोषित करना बाकी भाषाओं के बोलने वालों के लिए असमानता का कारण बन सकता था।


2. स्वतंत्रता के बाद का विवाद

स्वतंत्रता के बाद जब भाषा का मुद्दा उठा, तब हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का प्रस्ताव आया, लेकिन दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर राज्यों में इसका विरोध हुआ। खासकर तमिलनाडु जैसे राज्यों ने इसे "हिंदी थोपने" के प्रयास के रूप में देखा।

3. संविधान का प्रावधान

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में हिंदी (देवनागरी लिपि) को राजभाषा और अंग्रेज़ी को सह-राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया, लेकिन "राष्ट्रीय भाषा" शब्द का कहीं भी प्रयोग नहीं किया गया। इसका मतलब है कि भारत की कोई भी भाषा राष्ट्रीय भाषा नहीं है।


4. अंग्रेज़ी की भूमिका

अंग्रेज़ी स्वतंत्रता के समय पहले से ही प्रशासन, न्यायपालिका और उच्च शिक्षा में इस्तेमाल हो रही थी। यह विभिन्न राज्यों के बीच संपर्क भाषा के रूप में बनी रही। कई राज्यों के लिए अंग्रेज़ी एक तटस्थ विकल्प था, जो किसी एक क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं थी।


5. राज्यों की भाषाई पहचान

भारतीय राज्यों की सीमाएँ भी कई बार भाषाई आधार पर बनीं। जैसे तमिलनाडु (तमिल), कर्नाटक (कन्नड़), महाराष्ट्र (मराठी) आदि। ऐसे में एक भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाना इन राज्यों की भाषाई पहचान पर असर डाल सकता था।

6. समानता और लोकतांत्रिक दृष्टिकोण

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जहाँ सभी भाषाओं को सम्मान देने की कोशिश की जाती है। एक राष्ट्रीय भाषा घोषित करने से अन्य भाषाओं के प्रति दूसरे दर्जे का भाव पैदा हो सकता था।


भारत में "राष्ट्रीय भाषा" न होने का कारण भाषाई विविधता, राज्यों की सांस्कृतिक पहचान और राजनीतिक सहमति का अभाव है। इसके बजाय, भारत ने "राजभाषा" का मॉडल अपनाया, जिसमें हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों प्रशासनिक और आधिकारिक कार्यों में प्रयोग की जाती हैं। यह व्यवस्था भारत की "एकता में विविधता" की भावना को बनाए रखने में मदद करती है।